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Sunday, March 8, 2020

अग्रवाल मूल में जैन ही हैं !

- गौरव जैन
gouravj132@gmail.com


अग्रवाल उत्तर भारत की सम्पन्न व शिक्षित वैश्य जाति है. इसने भारत देश के उत्थान में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है. इस जाति के अनुयायी आम तौर पर हिंदू व जैन दोनों धर्मों के पालक रहें हैं.

अग्रवाल जाति का इतिहास राजा अग्रसेन से शुरु होता है.  उनका राज्य महाभारत काल में हरियाणा प्रदेश के हिसार-रोहतक क्षेत्र में विस्तृत था. इस जाति की उत्पत्ति के संबंध में जितने भी कथानक है वह सभी यूं तो काल्पनिक ही है, पर उनपर अगर शोध हो तो वह निश्चित ही अग्रवाल जाति को प्रारंभ से जैन धर्म से जोड़ेंगे. वस्तुतः अग्रवाल भारत की मूल जाति रही है जो विदेशी आर्यो के अत्याचारों से पीड़ित होकर वैश्य वर्ण में आ गई.  इसका ही विवेचन हम यहां करेंगे.

परवर्ती वैदिक साहित्य में राजा अग्रसेन की कथा का वर्णन आता है जिसके अनुसार वह महालक्ष्मी के उपासक थे और सूर्यवंशी थे. उन्होंने एक बार अश्वमेध यज्ञ भी किया था और उसमें बलि देने की बात आई तो उन्होने इससे मना कर दिया. बलि नहीं देने के कारण ही उन्हें ब्राह्मणों ने क्षत्रिय वर्ण से बाहर कर दिया तब अग्रसेन राजा ने वैश्य वर्ण स्वीकार किया.

एक और वैदिक कथानुसार राजा अग्रसेन जब अपने लिए नई राजधानी की खोज में निकले तब उन्हें वर्तमान अग्रोहा के पास (जो उस समय घनघोर जंगल था) एक जगह शेर व गाय एक ही घाट पर जल पीते दिखे. राजा अग्रसेन ने सोचा जहां पवित्र मैत्री व अहिंसा हिंसक जानवरो में भी हो, वहां अवश्य ही हमे राजधानी स्थापित करना चाहिए. तीर्थंकर के समवशरण में भी शेर व गाय एक ही घाट पर पानी पीते है. संभव है कि उस समय वहां से तीर्थंकर का समवशरण गुजरा हो जिसके फलस्वरुप गाय व सिंह एक जगह जलपान कर रहे थे.

इससे यह तथ्य सटीक हो जाता है अग्रसेन राजा कुल परम्परा से शाकाहारी थे एवं वह बाकी राजाओं की तरह आर्य ब्राह्मणों के विचारो उन्हें मान्य नहीं थे. उनका अहिंसा में भरपूर विश्वास था.

अग्रसेन राजा के 18 पुत्रो के नाम पर 18 गोत्रों के नाम पडे इन में से 3 गोत्र आज भी परवार जैनों में व अग्रवालो में समान है ( गोयल, कांसल, बांसल). इससे भी इनकी जैन धर्म से साम्यता ज्ञात होती है.

यह कथा इतिहास काल के पूर्व की है जिसके संबंध में प्राचीन ग्रंथों का अभिप्राय अनुसार अध्ययन ही प्रमाण है.

अग्रोहा के पुरातत्व की ओर दृष्टि करे तो वहां जो खुदाई हुई है उसमें जितने भी प्राचीन सिक्के मिल गए हैं उन सब पर प्राकृत भाषा में लिखा गया है. एक सिक्के पर  एक ओर वृषभ का चिह्न व दूसरी ओर प्राकृत भाषा में अग्र गणराज्य का उल्लेख है. प्राकृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा रही है. तीर्थंकरों ने अपने प्रवचन इसी भाषा में दिए.

वास्तव में अग्रोहा यह स्थान सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा हुआ स्थान था. कुछ विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल के पणि लोग, जिनका ऋग्वेद में वर्णन आया है, वास्तव में आजके अग्रवालों के पूर्वज थे. ऋग्वेद के अनुसार यह पणि लोग  व्यापार करने में माहिर थे और समुद्री व्यापार भी करते थे. यह पणि लोग संपन्न व् अहिंसक थे और हिंसक यज्ञों का विरोध करते थे. 

आचार्य भद्रबाहु द्वितीय के शिष्य लोहाचार्य (एक पट्टावली अनुसार आचार्य समन्तभद्र)  भद्दिलपुर (आज का विदिशा) से विहार करते हुए अग्रोहा के निकट पधारे. उस समय इस ओर  जैनधर्म का प्रचार-प्रसार बहुत था. यहां के शासक दिवाकर ने आचार्य की वंदना की व उनसे प्रतिबोध पाकर जैन धर्म के प्रति श्रद्धा और दृढ की.

प्राचीन काल में जिस धर्म का पालक राजा होता था उसी धर्म को प्रजा भी मानती थी, इसी कारण उस क्षेत्र में रहने वाले सभी जाति के निवासियो ने जैन धर्म का पालन करना शुरु कर दिया. बाद में यहां के सभी लोगो ने मिलकर अग्रवाल जाति बनाई. उन्हें आचार्य ने काष्टासंघी नाम दिया तब से लेकर अब तक काष्टासंघ की पीठ पर बनने वाले सभी भट्टारक अग्रवाल कुलोत्पन्न ही होते थे. यह घटना दूसरी शताब्दी के आसपास की है.

अब तक चंपापुर(बिहार), ग्वालियर, तिजारा(राजस्थान) आदि कई स्थानों से खुदाई में अग्रवाल, अग्रोतक आदि प्रशस्ति लिखी जैन मूर्तियां प्राप्त हुई है. सम्राट अकबर के काल में साहू टोडर अग्रवाल ने मथुरा में 500 से अधिक जैन स्तूप बनवाए थे. अग्रोहा में भी खुदाई में जैन स्तूप निकले है. जैन धर्म में तीर्थंकरो की निर्वाण स्थली, मुनियों की समाधि स्थली पर स्तूप बनाने की परंपरा प्राचीनतम रही है. अग्रवाल समाज में इस परंपरा का पालन मुगलकाल तक जारी रहा.


अग्रवाल वैष्णव धर्मी कैसे बने


मुगलकाल मे जब जैन धर्मियों पर बहुत संकट आया. ऐसे समय में उत्तर भारत में जैन मुनियों का विहार खत्म हो गया. तब पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के संत वल्लभाचार्य ने अग्रवाल वैश्यो का वैष्णव धर्म में धर्मान्तरण करवाया. यह कार्य आजादी के बाद तक चलता रहा. हरियाणा में हजारो जैन अग्रवाल आर्य समाजी बन गए. लाला लाजपतराय जैन अग्रवाल थे पर आर्य समाज से जुड़कर उन्होंने जैन धर्म त्याग दिया. आज भी कई वृद्ध वैष्णव अग्रवाल यह बताते है कि हम बचपन में भाद्रपद मास में जैन मंदिर जाते थे. बाद में हमने जैन और वैष्णव दोनो धर्मो को एक ही मानकर जैन गुरु का सानिध्य नहीं मिलने के कारण वैष्णव धर्म का पालन करना शुरु कर दिया.

कोलकाता के प्रसिद्ध बेलगछिया जैन मंदिर के निर्माता अग्रवाल श्रेष्ठी थे ऐसे कई विशाल मंदिरो का निर्माण अग्रवाल जैन बंधूओ ने करवाया था पर आज सभी जैन धर्म से परिचय टूटने के कारण वैष्णव धर्मी हो गए.
आज वैज्ञानिक युग है ऐसे समय में वास्तविक इतिहास को समझकर युवाओ को अपने मूलधर्म के प्रति श्रद्धा बढानी चाहिए व जैन धर्म का अनुसरण करना चाहिए. 

वस्तुतः देखा जाए तो अग्रवाल समाज की अहिंसा प्रियता, इनका शाकाहारी होना, इनकी जैन समाज से काफी समानता होना और इनके जैन अग्रवालों के साथ विवाह संबंध होना इन्हें जैन घोषित करती है.

वैसे आज भी इस समाज के कई लोग जैन धर्म का पालन करते हैं और जैन धर्म के कई साधू और साध्वियां अग्रवाल समाज से हैं.

ग्रन्थ साभार-1. विदिशा वैभव
2.अग्रवाल और जैन धर्म
3. अग्रवाल जाति का इतिहास
4. जैन आणि हिंदू

(गौरव जैन भारत के सामाजिक इतिहास के जानकार है और एक लेखक भी हैं ).

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