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Monday, March 16, 2020

क्या आदिवासियों का मूल धर्म जैन है ?

गौरव जैन


भारत मेंं आदिवासियो की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 10% है जो लगभग भारत के सभी राज्यो में फैले है.  इनमे बंगाल , झारखंड , ओडिशा , छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पूर्वोत्तर, गुजरात, दक्षिण राजस्थान में इनकी संख्या अधिक है.

आदिवासियो के धर्म को लेकर प्रारंभ से विवाद रहा है. उन्हें हिंदू, बौद्ध या क्रिश्चियन धर्मी बताया जाता है. पर उनके व्यवहार, आचरण, संस्कृति से वह इन धर्मो से दूर और  श्रमण जैन धर्म के बहुत करीब हैं.

आदिवासी क्षेत्रों  में प्राचीन काल में जैन धर्म का अत्यधिक प्रभाव था. जैन ग्रन्थो में भील, किरात सहित कई जनजातियों का उल्लेख मिलता है. यह प्राचीन काल में जैन थे.

जैन मुनि आचार्य वीरचन्द्र ने दक्षिण देश के विंध्यगिरि के पहाड़ी क्षेत्रों  में भिल्लक संघ की स्थापना की थी. यह संघ भील जैन श्रावकों का समूह था.

जैनों के सबसे बड़े तीर्थ सम्मेदशिखर के प्रति आज भी उस क्षेत्र की संथाल, भील जैसी जनजातियां श्रद्धा रखती है.

आदिवासी समुदाय के जैन होने का एक अकाट्य प्रमाण यह है कि आदिवासी क्षेत्र के जंगलो में प्रचुर मात्रा में तीर्थंकर मूर्तियों का होना. बंगाल से लेकर झारखंड, बिहार, ओडिशा, बस्तर, मध्यप्रदेश, पूरे दक्षिण प्रान्त में बड़ी संख्या में तीर्थंकर मूर्तियां  बिखरी हुयी हैं. आज के 50 वर्ष पहले शायद ही कोई ऐसा गांव  आदिवासी अंचल में रहा होगा जहां तीर्थंकर मूर्तियां नहीं थी.  धीरे-धीरे वह चोरी हो गई. कुछ जगह प्रवासी जैनों ने उन्हें वहां  से लाकर अपने मंदिरो में रखवा दिया. पर आज भी आदिवासी क्षेत्रो में तीर्थंकर मूर्तियां  बड़ी संख्या में मौजूद हैं. अगर आप  बस्तर, बंगाल के भ्रमण पर जाएंगे तब हर गांव  में जैन धर्म के अवशेष मिलेंगे.

जैन मुनि प्राचीन समय में जंगलो में ही विचरण करते थे. इस दौरान वह चातुर्मास के 4 माह का समय आदिवासियों  के बीच बिताते थे. मुनिगणों  के भोजन आदि की व्यवस्था यही वनवासी करते थे. यह परंपरा मुनिगणों के जंगल में रहने तक रही. जब जैन मुनि शहरों में विचरण करने लगे तब  आदिवासी समाज भी जैन धर्म व  उनके संस्कारो से दूर हो गया.

हडप्पा-मोहनजोदाड़ो सभ्यता से उत्खनन में मिले अवशेष जिनमे तीर्थंकर की नग्न मूर्तियां , आदिवासियों  से जुडे विशेष चिह्न आदि कई पुरावस्तुएं  जैनधर्म और आदिवासी सभ्यता को जोड़ती है.

पांडुलिपि शोधकर्ता, राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त प्रोफेसर राजाराम शास्त्री आरा बताते है,  "आचार्य भद्रबाहु जब दक्षिण भारत गए उस वक्त एक मुनिसंघ नाव के सहारे तमिल प्रान्त से अण्डमान निकोबार द्वीप भी गया था और वहां धर्मप्रचार किया. अण्डमान-निकोबार द्वीप प्रारंभ से ही विभिन्न आदिवासी जनजातियो का निवास स्थान रहा है.

तीर्थंकर पार्श्वनाथ और वर्धमान महावीर ने अपने साधना काल में आदिवासी क्षेत्रो का विचरण किया था व वहां  उनके बीच चातुर्मास भी किए. इस दौरान लाखों आदिवासी जैन परंपरा में दीक्षित हुए. तीर्थंकरो के राढ़ भूमि (आज का बंगाल,झारखंड) आदिवासी क्षेत्र में विहार का वर्णन आचारांग सूत्र में मिलता है.

बंगाल, ओडिशा, झारखंड की आदिवासी क्षेत्र की सराक, रंगिया, सदगोप जैसी जातियां  स्वयं को तीर्थंकरो की वंशज बताती है. उनके गोत्र आदि भी तीर्थंकरो के नाम पर ही है. यह लोग आज भी पूर्ण शाकाहारी है.

आदिवासी समुदाय आज अधिकतर मांसाहारी  है पर उनमें करुणा, दया की भावना भरपूर भरी है. जंगली जानवर व पेड़-पौधे उन आदिवासियो की दया व प्रकृति पूजा के कारण ही सुरक्षित हैं. यह करुणा, दया उनमें  जैनधर्म से आई है.

भीलों को नेपाल में आज भी श्रमण कहा जाता है. भील जनजाति और जैन-धर्म पर एक स्वतंत्र लेख लिखा जा सकता है.

राजस्थान में कुछ स्थानों पर मीना आदिवासी जैन-धर्म का पालन करते हैं.  इसी तरह गुजरात में भी परमार और राठवा आदिवासी जैन धर्म का पालन करते हैं.

आदिवासियो के मूल धर्म पर शोध हो तो भारत का इतिहास नई दिशा की ओर जा सकता है. पर आज इस तरफ अधिक ध्यान नहीं दिया जा रहा है. आशा है इस तरफ चिंतन होगा.

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